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पर्यावरण

                                                        

                           पर्यावरण 

                                  (कबीर साहब के शब्दों में )

              मित्रों ,आज हमारी मानव सभ्यता शिक्षा और समझ के इस स्तर पर पहुँच चुकी है कि लगभग हर आदमी पर्यावरण के बारे में कुछ न कुछ समझ रखता है,परन्तु आज से छः सौ वर्ष पूर्व किसी ने सायद ही पर्यावरण के बारे में कुछ सोच हो,मगर कबीर साहब ने उस समय में भी पर्यावरण के विषय में दोहे के माध्यम से पंक्ति कहा था। आज हम उसी पंक्ति पर चर्चा करेंगे।  
               
             दोहा :-  डाली छेडूं न पत्ता छेडूं,न कोई जीव सताऊँ।
                       पात-पात में प्रभु बसत है ,वाही को सीस नवाऊँ।। 
                                                
                शब्दार्थ :-       डाली- पेड़ों की डालियाँ।                                                                                                                                    छेडूं- किसी भी प्रकार से परेशान करना।
                                     जीव -किसी भी प्रकार के प्राणी या जानवर।                                                                                                    सताऊँ -किसी भी प्रकार से परेशान करना।
                                       पात-  पेड़ों के पत्ते।
                                     बसत-निवास करना।
                                 वाही को-उसी को। 
                               सिर वाऊँ- नवाना ,प्रणाम करना ,श्रेष्ठ्ता स्वीकार करना।            
                             
                  मित्रों ,इस दोहे के माध्यम से कबीर साहब उपदेश करते है कि मैं ने अपने आचरण में शामिल किया है कि मैं न तो किसी पेड़ की डाली को छूता हूँ ,न तोड़ता हूँ न ही किसी प्राणी को पीड़ा देता हूँ फिर भी मेरी पूजा/उपासना हो जाती है क्यों की मैं जनता हूँ कि पेड़ के हर पत्ते-पत्ते में और हर प्राणी में वही प्रभु निवास करता है इसलिए मैं उन्ही को प्रणाम करता हूँ। 
                 मित्रों ,कबीर साहब का यह प्रसंग उनके वास्तविक समाज सुधारक होने के साथ-साथ पर्यावरण के प्रति उनके सचेतन होने का प्रमाण देता है। इसको आप जब धार्मिक कुरीतियों के हिसाब से देखेंगे तो पाएंगे कि हिन्दू धर्म में बहुत से लोग आप को हर सुबह पेड़ों-पौधों से पूजा के नाम पर फूल-पत्ते तोड़ते मिल जाते होंगे और मुस्लिम धर्म में इबादत के नाम पर जीवों की कुर्बानी देने की प्रथा से आप परिचित ही है। कबीर साहब इस दोहे के माध्यम से तत्कालीन समाज को यह संदेश देते है कि आपके पेड़-पौधे के फूल ,पत्ते से न तो ईश्वर की पूजा होगी और न तो जीवों को मार कर कुर्वानी देने से ख़ुदा प्रसन्न होगा। अतः धर्म के नाम पर ऐसा न करो कि पर्यावरण को नुकसान हो।          
                 मित्रों ,कहना न होगा कि आज हम मानव अपने तमाम सुख की इच्छाओं, कुकृत्यों एवं आधुनिकता के नाम पर पर्यावरण का जितना विनाश किया है उतना इतिहास में कभी भी नही हुआ है। हम लोगो अपने अनुपम मानव जीवन को अपने कृत्यों से नर्क बनाने पर तुले हुए है। 


                   अंततः मैं अपनी ओर से यह विचार देना चाहूँगा कि आज समय रहते अगर हम पर्यावरण के प्रति सचेत न हुए तो हमारी आने वाली पीढ़ी प्रदूषण के इस दंश को सायद ही झेल पाए इसलिए हमें अपने जीवन में जो भी कार्य करना हो उसे सबसे पहले पर्यावरण के नज़रिए से परखने का प्रयास करना चाहिए। 
                                      
                                                                                                                                         प्रणाम      
                       
                                                   
                                                 

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