क्या खोया -क्या पाया-3
मित्रों, कहने का अर्थ यह है कि इस जगत में मनुष्य ही नही समस्त प्राणी निरंतर पैदा होते रहते है और मरते रहते है। हम सब भी पैदा हुए और हमारी भी वही गति होनी है फिर भी हम सब जीवन को ऐसे जीते है जैसे हम ही दुनियाँ को संचालित कर रहे है। जीवन को आनंद से ज्यादा हम कष्टकारी बना लेते है, हमारे दुःख ,पीड़ा ,छटपटाहट भरे इसी जीवन को जब कबीर साहब जैसे ज्ञानी लोग देखते है तो उन्हें दुःख होता है। जैसे ऊपर की कहाँनी में आप ने देखा की पागल को देख कर जो पागल नही है वह कष्ट पा रहा है। ज्ञानी जन को दुःख पाने का एक और सबसे महत्वपूर्ण कारण है ,वह देखते है कि जिस ज्ञान के बल पर उन्होंने अपने जीवन को आनंद से भर लिया है उसे पाने की ललक छोड़ ,सम्पूर्ण जगत के लोग न जाने क्या-क्या पाने के लिए भाग रहे है तथा जिस महत्वपूर्ण वस्तु को जानना चहिये उसपर ध्यान ही नही जा रहा है । अंत में इसी दुखों के बोझ तले दबकर मनुष्य अपनी जीवन लीला की समाप्ति कर लेता है इसी को कबीर साहब "दुइ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय" कहते हैं।
मित्रों ,आशा करता हूँ कि आपने "क्या खोया -क्या पाया-2" पढ़ा होगा। हम कबीर साहब के एक दोहें "चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय। दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय" पर चर्चा कर रहे थे।इस दोहे पर आप जब ध्यान दे तो समझ जायगे कि कुछ सामान्य सी बात हो रही परन्तु कबीर साहब की पक्तियाँ अपने में ढेरों भाव समेटे रहती है। इस दोहे के माध्यम से कबीर साहब कहते हैं कि मनुष्य का जीवन जो हम सबको इस धरा पर मिला है वह एक चक्की में समाहित होने के समान है ,उस चक्की का एक पाट यह धरती और दूसरा पाट यह आकाश है , यह चक्की अनवरत चल रही है अर्थात यह चक्की समय के साथ-साथ बिना रुके चल रही है। कबीर साहब आगे की पँक्ति में कहते है कि इस संसार रूपी चक्की में जो भी अनाज रूपी मनुष्य आ रहा है वह सब के सब उसी प्रकार पीस जा रहा जैसे अनाज पीस जाता है और उसके पीसते हुए देख कर मुझे रोना आ रहा।
मित्रों , कहने को भावार्थ यही हैं परन्तु आप थोड़ा गौर करें कि जब हम किसी प्रकार गलती कर रहे होते है तो उस दशा में क्या हमें ज्ञात होता कि हम गलती कर रहे है ? यदि हमें ज्ञात हो की हम गलती कर रहे है तो क्या हम गलती करेंगे ? आपका जबाब होगा की कभी नहीं। आप को एक कहानी के बताता हूँ। एक बार की बात है, मेरे गॉँव में रहने वाला घनश्याम पागल हो गया। पागलपन की अवस्था में घर में बहुत उधम मचता, घर से बाहर आता तो बाहर भी लोगों के साथ अनाब-सनाब बातें करता। बातो-बातों में गुस्सा से भर जाता,अक्सर लोगों के साथ मार-पीट कर लेता।उसकी ऐसी दशा पर सबको तरस आता पर कोई कुछ न करता। वर्षो उसकी वही स्थिति बनी रही। एक दिन गाँव में शहर से एक परदेशी चाचा जी आये उन्होंने घनश्याम की हालत देखी तो कहने लगे,इसे ले जाकर किसी दिमाग के डॉक्टर को क्यों नही दिखा देते ? घर वाले भी परेशान ही थे।अतः घर वालों ने तय किया कि उसका बडा भाई राधेश्याम उसे शहर ले जाएगा और किसी अच्छे डॉक्टर से दवा शुरू हो जाएगी। अगले दिन घनश्याम का भाई राधेश्याम उसे लेकर शहर जाने को तैयार होता हैं ,चुकि घनश्याम को कोई साथ ले कर कभी शहर गया ही नही था इसलिए वह बार-बार लोगों से पूछता की मुझे शहर क्यों लेकर जा रहे हो ? लोग अपने-अपने तरीक़े से उसे समझते मगर वह सवाल पर सवाल पूछता और अंत में लोग निरुत्तर हो जाते। उस दिन सुबह से दोपहरऔर दोपहर से शाम हो गया लेकिन घनश्याम को कोई भी समझा नही पाया कि आख़िर शहर क्यों जाना है और वह नही गया। घर में सभी ने तय कर लिया था कि कोई भी घनश्याम को यह नही बतायेगा कि उसके दिमाग की दवा के लिए उसे शहर जाना है। दूसरे दिन सुबह से ही राधेश्याम तैयार हो गया ,और घनश्याम अपनी धुन में लगा हुआ था ,आख़िर शहर क्यों जाना। लोग समझते रहे मगर घनश्याम कभी भी यह मानने को तैयार नही था कि वह पागल है पर जिन लोगों से वह बात करता उन्हें उसके दिमागी हालत पर तरस आता क्यों कि उसकी मानसिक स्थिति बिलकुल ठीक नही थी।
मित्रों, कहने का अर्थ यह है कि इस जगत में मनुष्य ही नही समस्त प्राणी निरंतर पैदा होते रहते है और मरते रहते है। हम सब भी पैदा हुए और हमारी भी वही गति होनी है फिर भी हम सब जीवन को ऐसे जीते है जैसे हम ही दुनियाँ को संचालित कर रहे है। जीवन को आनंद से ज्यादा हम कष्टकारी बना लेते है, हमारे दुःख ,पीड़ा ,छटपटाहट भरे इसी जीवन को जब कबीर साहब जैसे ज्ञानी लोग देखते है तो उन्हें दुःख होता है। जैसे ऊपर की कहाँनी में आप ने देखा की पागल को देख कर जो पागल नही है वह कष्ट पा रहा है। ज्ञानी जन को दुःख पाने का एक और सबसे महत्वपूर्ण कारण है ,वह देखते है कि जिस ज्ञान के बल पर उन्होंने अपने जीवन को आनंद से भर लिया है उसे पाने की ललक छोड़ ,सम्पूर्ण जगत के लोग न जाने क्या-क्या पाने के लिए भाग रहे है तथा जिस महत्वपूर्ण वस्तु को जानना चहिये उसपर ध्यान ही नही जा रहा है । अंत में इसी दुखों के बोझ तले दबकर मनुष्य अपनी जीवन लीला की समाप्ति कर लेता है इसी को कबीर साहब "दुइ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय" कहते हैं।
मृत्युंजय
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