जीवन का कठोर सत्य (भाग - 5) 8 . मानव शरीर इन्द्रियों के माध्यम से शरीर रुपी मन्दिर में आत्मा रुपी मालिक का सेवा हेतु तत्पर रहता है। परन्तु इन्द्रियों का स्वामी मन इस बात को न जान पाता है कि हम इंद्रियों सहित आत्म सेवा के हेतु ही बने है और धीरे-धीरे आत्मा की आवश्कता को भूल कर शरीर की आवश्कता की पूर्ति करना आरंभ कर देता है। शरीर की आवश्कता की पूर्ति भी वह जाने-अनजाने में आत्मा के लिए ही करता है और आत्म मन्दिर रुपी शरीर का इन्ही इन्द्रियों के कर्म /क्रिया से पोषित भी होता है लेकिन जब बात जगत के व्योहार की आती है तो वह स्वयं के लिए कार्य के आदत के कारण व्यक्ति स्व के अर्थ में पड़ जाता है अर्थातस्वार्थ में पड़ जाता है और जो जगत व्योहार में अनुचित है, वही कर जाता है। जगत व्योहार में जब तक मानव स्व से ऊपर उठ कर कार्य नही करता उसे ख्याति नही प्राप्त हो सकती और जब तक आत्म बोध नही होगा तब तक आप स्व से ऊपर नही उठ सकते। अतः यह कहा जा सकता है कि वे सभी लोग जो अपने आप को समाज में प्रतिष्ठित करना चाहते है उन्हें आत्म बोध की नितांत आवश्कता है। इस बात को हम दूसरे तरीके से कहे तो कहा जा सकता है कि समाज को उत्कृष्ट बनाने के लिए आत्म बोध की शिक्षा की नितांत आवश्कता है। इस आत्म बोध की शिक्षा को ही पुरातन काल में आत्म ज्ञान की शिक्षा कहा जाता था। इस शिक्षा से मानव समाज का व्योहार उत्कृष्ट होता है और एक सुन्दर समाज की स्थापना होती है जो आज ही नही हर समय मनुष्य की आवश्यक्ता रही है। हम अपने समाज में ऐसे उच्च कोटि के व्योहार वाले लोगो को देखते है और उनके जैसा बनाना भी चाहते है परन्तु हर किसी से यह संभव नही हो पाता ,कारण कि हम मे ज्यादातर लोगो का लालन-पालन, शिक्षा,और दिनचर्या लगभग समान ही रही है।
आप आज की जो शिक्षा देख रहे ,यह शिक्षा केवल भौतिक विकास की शिक्षा है और इसमें भौतिक विकास तो हो रहा है परन्तु आत्म बोध न होने के कारण सामाजिक ज्ञान का विकास नही हो पा रहा है और सामाजिक ताना-बाना बिगड़ता जा रहा है। जिसके कारण कई बार भौतिक विकास का विनाश भी हम सभी को देखने को मिलता है। ........ क्रमशः
Comments
Post a Comment
thanyou for comment